Thursday, August 01, 2019

व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे | नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ||

व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे |नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः || व्यास जी को नमन है जो वास्तव में विष्णु जी हैं... और श्री विष्णु जी को नमन है जो वास्तव में व्यास जी ही हैं...जो ब्रह्म ज्ञान की निधि हैं और महाऋषि वशिष्ठ जी के वंशज हैं... महाऋषि वेद व्यास जी भगवान् नारायण के २४ अवतारों में से एक हैं... यह सनातन इतिहास के १८ पुराणों, उप-पुराणों और उपनिषदों का सार रूप श्रीमदभगवत गीता जी संजोये महाभारत ग्रन्थ के रचयिता हैं | यह महाऋषि पराशर( जो महाऋषि वसिष्ठ के पौत्र थे) और सत्यवती (मत्स्य गंधा) की संतान हैं और सप्त चिरंजीविओं (कल्पांत जीविओं) में से एक हैं |शास्त्र अनुसार द्वापर युग में स्वयं विष्णु भगवान् ही व्यास के रूप में अवतरित होकर वेदों के विभाग प्रस्तुत करते हैं | पहले द्वापर में स्वयं ब्रह्मा वेदव्यास हुए, दूसरे में प्रजापति, तीसरे द्वापर में शुक्राचार्य , चौथे में बृहस्पति वेदव्यास हुए | इसी प्रकार सूर्य, मृत्यु, इन्द्र, धनजंय, कृष्ण द्वैपायन अश्वत्थामा आदि अट्ठाईस वेदव्यास हुए | इस प्रकार अट्ठाईस बार वेदों का विभाजन किया गया | महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा | धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जावेंगे | एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा | इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें | व्यास जी ने उनके नाम रखे - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी "वेद व्यास" के नाम से विख्यात हुये | वेदव्यास जी ने पुराणों की रचना की | कहा जाता है, ‘‘पूर्णात पुराण ’’... जिसका अर्थ है, "जो वेदों का पूरक हो" अर्थात् पुराण ( जो वेदों की टीका हैं ) | वेदों की जटिल भाषा में कही गई बातों को पुराणों में सरल भाषा में समझाया गया है | पुराण-साहित्य में अवतारवाद को प्रतिष्ठित किया गया है | निर्गुण निराकार की सत्ता को मानते हुए सगुण साकार की उपासना करना इन ग्रंथों का विषय है | पुराणों में अलग-अलग देवी-देवताओं को केन्द्र में रखकर पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म और कर्म-अकर्म की कथाये हैं | प्रेम, भक्ति, त्याग, सेवा, सहनशीलता ऐसे मानवीय गुण हैं, जिनके अभाव में उन्नत समाज की कल्पना नहीं की जा सकती | पुराणों में देवी-देवताओं के अनेक स्वरूपों को लेकर एक विस्तृत विवरण मिलता है | पुराणों में जहां कहीं भी देवताओं की दुष्प्रवृत्तियों का व्यापक विवरण किया है... उसका मूल उद्देश्य यह सन्देश देना ही है की "सुंदर चरित्र और सद्भावना का विकास हो और सत्य की प्रतिष्ठा हो"... "यह सनातन कर्म-फल के सिद्धांत की सत्यता भी प्रमाणित करते हैं की जो मनसा, वाचा और कर्मणा, जैसा कर्म करेगा... वह वैसा ही फल प्राप्त करेगा... यही विधि का विधान निश्चित किया गया है... जो देवता, असुर, मनुष्य, सबके लिए सामान है... पुराण शब्द ‘पुरा’ एवं ‘अण’ शब्दों की संधि से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ -‘पुराना’ अथवा ‘प्राचीन’ होता है । ‘पुरा’ शब्दका अर्थ है - अनागत एवं अतीत । ‘अण’ शब्द का अर्थ है "कहना" या "बताना" | अर्थात "जो अतीत के तथ्यों, सिद्धांतो, शिक्षाओं, नीतिओ, नियमो और घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करे, वह पुराण है"| १८ पुराण और श्लोक संख्या : 1) विष्णु पुराण(२३,०००) 2) ब्रह्म पुराण (१०,०००) 3) शिव पुराण(२४,०००) 4)भागवत पुराण(१८,०००) 5) ब्रह्माण्ड पुराण (१२,०००) 6) लिङ्ग पुराण(११,०००) 7) नारद पुराण(२५,०००) 8)ब्रह्म वैवर्त पुराण(१८,०००) 9)स्कन्द पुराण(८१,१००) 10) गरुड़ पुराण(१९,०००) 11)मार्कण्डेय पुराण(९,०००) 12)अग्नि पुराण(१५,०००) 13) पद्म पुराण(५५,०००) 14) भविष्य पुराण(१४,५००) 15)मत्स्य पुराण(१४,०००) 16) वराह पुराण(२४,०००) 17) वामन पुराण(१०,०००) 18) कूर्म पुराण(१७,०००) पुराणों की संख्या अठारह क्यों ? अणिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, सिद्धि, ईशित्व या वाशित्व, सर्वकामावसायिता, सर्वज्ञत्व, दूरश्रवण, सृष्टि, पराकायप्रवेश, वाकसिद्धि, कल्पवृक्षत्व, संहारकरणसामर्थ्य, भावना, अमरता, सर्वन्याय - ये अट्ठारह सिद्धियाँ मानी जाती हैं । सांख्य दर्शन में पुरुष, प्रकृति, मन, पाँच महाभूत ( पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश ), पाँच ज्ञानेद्री ( कान, त्वचा, चक्षु, नासिका और जिह्वा ) और पाँच कर्मेंद्री (वाक, पाणि, पाद, पायु और उपस्थ ) ये अठारह तत्व वर्णित हैं । छः वेदांग, चार वेद, मीमांसा, न्यायशास्त्र, पुराण, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, धनुर्वेद और गंधर्व वेद ये अठारह प्रकार की विद्याएँ मानी जाती हैं । एक संवत्सर, पाँच ऋतुएँ और बारह महीने - ये सब मिलकर काल के अठारह भेदों को बताते हैं । श्रीमद् भागवत गीता के अध्यायों की संख्या भी अठारह है । श्रीमद् भागवत में कुल श्लोकों की संख्या अठारह हज़ार है । श्रीराधा, कात्यायनी, काली, तारा, कूष्मांडा, लक्ष्मी, सरस्वती, गायत्री, छिन्नमस्ता, षोडशी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, पार्वती, सिद्धिदात्री, भगवती, जगदम्बा... शक्ति के ये अठारह स्वरूप माने जाते हैं | श्रीविष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र आदि देवताओं के अंश से प्रकट हुई भगवती दुर्गा अठारह भुजाओं से सुशोभित हैं | उप पुराण: महर्षि वेदव्यास ने अठारह पुराणों के अतिरिक्त कुछ उप पुराणों की भी रचना की है। उपपुराणों को पुराणों का ही साररूप कहा जा सकता है । उपपुराण इस प्रकार हैं: 1) सनत्कुमार पुराण 2) कपिल पुराण 3) साम्ब पुराण 4) आदित्य पुराण 5) नृसिंह पुराण 6) उशनः पुराण 7) नंदी पुराण 8) माहेश्वर पुराण 9) दुर्वासा पुराण 10) वरुण पुराण 11) सौर पुराण 12) भागवत पुराण 13) मनु पुराण 14) कालिकापुराण 15) पराशर पुराण 16)वसिष्ठ पुराण महाभारत : यह विश्व का सबसे लम्बा साहित्यिक ग्रन्थ और महाकाव्य है | इसमें १,१०,००० श्लोक हैं |अपने इस अनुपम काव्य में व्यास जी ने वेदों, वेदांगो और उपनिषदों के गुह्यतम रहस्यों का निरूपण किया है | इसके अतिरिक्त इस महाकाव्य में न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्ध-नीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र खगोलविद्या और धर्मशास्त्र का भी व्यापक विवरण मिलता है | अत: सनातन संस्कृति इस अनुपम अद्वितीय शास्त्र निधि के लिए महाऋषि वेद व्यास जी की सदा ऋणी रहेगी... वेद व्यास जी की जय... सनातन धर्म की जय...

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